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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
थे हर काख़-ओ-कू और हर शहर-ओ-क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शाँ
नून मीम राशिद
नज़्म
धार पर जिस की चमन-परवर शगूफ़ों का निज़ाम
शाम-ए-ज़ेर-ए-अर्ज़ को सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का पयाम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हरीम-ए-इश्क़ की शम-ए-दरख़्शाँ बुझ के रह जाए
मबादा अजनबी दुनिया की ज़ुल्मत घेर ले तुझ को
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
चर्बी मिल कर इंसानों की इक चेहरा दरख़्शाँ होता है
ये ईद के जल्वे बनते हैं जब ख़ून-ए-ग़रीबाँ होता है
नुशूर वाहिदी
नज़्म
अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं
ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
लेकिन ऐ इल्म-ओ-जसारत के दरख़्शाँ आफ़्ताब
कुछ ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर भी तुझ से करना है ख़िताब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
काकुल में दरख़्शाँ है ये पेशानी-ए-रक़्साँ
या साया-ए-ज़ुल्मात में है चश्मा-ए-हैवाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
हिकायात-ए-शीरीन-ओ-तल्ख़ उन की, उन के दरख़्शाँ जराएम
जो सफ़्हात-ए-तारीख़ पर कारनामे हैं, उन के अवामिर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
सिर्फ़ ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ के निकलने तक है
रात के पास अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं