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नज़्म
इश्क़ ही ज़िंदा ओ पाइंदा हक़ीक़त है 'जिगर'
इश्क़ को आम बना ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा कर
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
बहार-ए-रंग-ओ-शबाब ही क्या सितारा ओ माहताब ही क्या
तमाम हस्ती झुकी हुई है, जिधर वो नज़रें झुका रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
उन के अल्ताफ़ का इतना ही फ़ुसूँ काफ़ी है
कम है पहले से बहुत दर्द-ए-जिगर आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मुबारक हो कि फिर से हो गया ''डांस'' और ''डिनर'' चालू
ख़लास अहल-ए-नज़र होंगे हुआ दर्द-ए-जिगर चालू
मजीद लाहौरी
नज़्म
ख़ून-ए-दिल देना पड़ा ख़ून-ए-जिगर देना पड़ा
अपने ख़्वाबों की हसीं परछाइयाँ देना पड़ीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
इफ़्फ़त ज़ेबा काकोरवी
नज़्म
क्यों न तड़पाए हमें अपने वतन की हालत
सोज़-ए-दिल रखते हैं हम दर्द-ए-जिगर रखते हैं