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नज़्म
दर्जनों मजबूर ताइर
ज़ेर-ए-पर मिंक़ार मुँह ढाँपे ख़मोशी के समुंदर-ए-बे-निशाँ में
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
आँख से चंद आँसू टपक कर मेरे
कान को ढाँपते मेरे बालों की सूखी लटों को भिगोतें हुए कान में जा गिरे
कँवल मलिक
नज़्म
पट्टियाँ जिस्म के ज़ख़्म ढाँपे हुए
और नज़रें इमरजंसी की राहदारी में दरवाज़े की सम्त उट्ठी हुई
फ़ैसल अज़ीम
नज़्म
इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बा'द
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
या छोड़ें या तकमील करें ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख-धंदा है ये कैसा ताना-बाना है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
अयाँ हैं दुश्मनों के ख़ंजरों पर ख़ून के धब्बे
उन्हें तू रंग-ए-आरिज़ से मिला लेती तो अच्छा था