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नज़्म
कितनी ताख़ीर से महर उभरा तिरी मेहर का आज
ख़ीरा आँखों की है मजबूरी कोई धुँदला-पन
मोहम्मद ज़ुबैर ख़ालिद
नज़्म
ये बज़्म-ए-शो'ला-कारी ये हरीम-ए-आतिश-अफ़्शानी
ये क़शक़े ये ‘अबाएँ ये गिरानी ये गिराँ-जानी
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
अब वक़्त-ए-सफ़र आ पहुँचा है आ मिल बैठें दो-चार घड़ी
जब पहले-पहल तुम आए थे आग़ाज़-ए-सहर का मेला था