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नज़्म
जोगी भी जो नगर नगर में मारे मारे फिरते हैं
कासा लिए भबूत रमाए सब के द्वारे फिरते हैं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लब-ए-तिश्ना पे इक ज़हर-ए-हक़ीक़त का फ़साना है
अजब फ़ुर्सत मयस्सर आई है ''दिल जान रिश्ते'' को
जौन एलिया
नज़्म
तिरी फ़ितरत अमीं है मुम्किनात-ए-ज़िंदगानी की
जहाँ के जौहर-ए-मुज़्मर का गोया इम्तिहाँ तो है