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नज़्म
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ख़ास तरह की सोच थी जिस में सीधी बात गँवा दी
छोटे छोटे वहमों ही में सारी उम्र बिता दी
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
ना-ख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं
रौशनी और अँधेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
इज़्ज़त सब उस के दिल की गंवाती है मुफ़्लिसी
कैसा ही आदमी हो पर इफ़्लास के तुफ़ैल
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तेरी 'उम्र-ए-रफ़्ता की इक आन है अहद-ए-कुहन
वादियों में हैं तिरी काली घटाएँ ख़ेमा-ज़न
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
यही घटाएँ यही बर्क़-ओ-र'अद ओ क़ौस-ए-क़ुज़ह
यहीं के गीत रिवायात मौसमों के जुलूस