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नज़्म
इस मुफ़्लिसी की ख़्वारियाँ क्या क्या कहूँ मैं हाए
मुर्दे को बे कफ़न के गड़ाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ख़ास तरह की सोच थी जिस में सीधी बात गँवा दी
छोटे छोटे वहमों ही में सारी उम्र बिता दी
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
ना-ख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं
रौशनी और अँधेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
लेकिन इतने चाँद गँवा कर हम ने भला क्या पाया
हम बद-क़िस्मत ऐसे जिन को धूप मिली ना साया