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नज़्म
क्यूँ डराते हैं अबस गबरू मुसलमाँ मुझ को
क्या मिटाएगी भला गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
इन में सच्चे मोती भी हैं, इन में कंकर पत्थर भी
इन में उथले पानी भी हैं, इन में गहरे सागर भी
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जो होने में हो वो हर लम्हा अपना ग़ैर होता है
कि होने को तो होने से अजब कुछ बैर होता है
जौन एलिया
नज़्म
जिस दिन से बँधा है ध्यान तिरा घबराए हुए से रहते हैं
हर वक़्त तसव्वुर कर कर के शरमाए हुए से रहते हैं