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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उस को जा के ये बताना हो
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
बहू कहे ये बुढ़िया मेरी जान की लागू बन के रहेगी
सास कहे गज़-भर की ज़बाँ है अपनी मुँह आई ही कहेगी