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नज़्म
मैं इस ख़याल में था बुझ चुकी है आतिश-ए-दर्द
भड़क रही थी मिरे दिल में जो ज़माने से
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
यहीं की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तिदा मैं ने
यहीं की जुरअत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ मैं ने