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नज़्म
विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का
चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के
नज़्म तबातबाई
नज़्म
फिर भी इक ख़ामुशी-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ हूँ मैं
दौर-ए-ज़ुल्मत का हर इक नक़्श मिटाया मैं ने
ख्वाजा मंज़र हसन मंज़र
नज़्म
इक हसीं गोर-ए-ग़रीबाँ पे हुआ यूँ गोया
ये भी कम्बख़्त कभी हज़रत-ए-इंसाँ होंगे
लाला अनूप चंद आफ़्ताब पानीपति
नज़्म
वो नुक़्ता जिस पे मैं हूँ मरक़द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है
मगर इस सम्त कोई आह-ओ-ज़ारी को नहीं आता
शहज़ाद अहमद
नज़्म
उस की आवाज़ पैग़ाम-ए-सुब्ह-ए-मसर्रत भी थी
उस की आवाज़ इक दर्द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ भी थी