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नज़्म
फ़ना-कदे को बनाया है जन्नत-ए-गुल-पोश
रवाँ-दवाँ हैं जहाँ नील-ओ-गंग दोश-ब-दोश
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
लेकिन इस शहर-ए-सितम-पेशा में कुछ भी न हुआ
मिरी जानिब कोई गुल-पोश दरीचा न खुला