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नज़्म
जौन एलिया
नज़्म
वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मिरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं में डूब जाता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में
रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
बाज़ार गली और कूचों में ग़ुल-शोर मचाया होली ने
या स्वाँग कहूँ या रंग कहूँ या हुस्न बताऊँ होली का
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
रंग-ओ-आब-ए-ज़िंदगी से गुल-ब-दामन है ज़मीं
सैकड़ों ख़ूँ-गश्ता तहज़ीबों का मदफ़न है ज़मीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ख़ून बन जाएगी शीशों में शराब-ए-लाला-गूँ
ख़ून की बू ले के जंगल से हवाएँ आएँगी