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नज़्म
मुसिर है मोहतसिब राज़-ए-शहीदान-ए-वफ़ा कहिए
लगी है हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताज़ीर अल्लाह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
रात का रूप भी बे-ज़ार, चराग़ाँ भी ख़फ़ा
सुब्ह-ए-हैराँ भी ख़फ़ा, शाम-ए-हरीफ़ाँ भी ख़फ़ा
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
हबीब क्या हैं हरीफ़ों ने ये ज़बाँ से कहा
सफ़ीर-ए-क़ौम जिगर-बंद-ए-सल्तनत न रहा