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बहादुर-शाह 'ज़फ़र'

शम्सी मीनाई

बहादुर-शाह 'ज़फ़र'

शम्सी मीनाई

MORE BYशम्सी मीनाई

    इशरत-ए-दहर से वाक़िफ़ भी था बेगाना भी

    तेरी शाही में थी इक शान-ए-फ़क़ीराना भी

    ज़ोह्द-ओ-पीरी में भी इक जुरअत-ए-रिंदाना थी

    सामने मौत के तदबीर-ए-हरीफ़ाना थी

    तू ने ख़ुद अपने वतन को कभी रुस्वा किया

    तू ने तो क़ौम के नामूस का सौदा किया

    तू भी एहसास को चाँदी से कुचल सकता था

    तू भी मौसम की तरह रंग बदल सकता था

    तू भी क्या बात थी ग़ैरत की तिजारत करता

    ऐश के वास्ते ईमान को ग़ारत करता

    तू भी क्या बात थी फ़ितरत को ख़फ़ा कर देता

    सुन्नत-ए-जाफ़र-ओ-सादिक़ भी अदा कर देता

    तू मगर कब था किसी राज-दुलारे की तरह

    आख़िरी वक़्त में टूटा तो सितारे की तरह

    सोज़-ए-पिन्हाँ को तरब-ख़ेज़ बनाया तू ने

    हर तबाही को कलेजे से लगाया तू ने

    हर ग़म-ए-दहर को मेहमान किया है तू ने

    पूरी इक नस्ल को क़ुर्बान किया है तू ने

    दुश्मन-ए-दीं ने किए तेरे असर के टुकड़े

    दार पर खींच दिए तेरे जिगर के टुकड़े

    सारे आलम ने तिरे शौक़ का आलम देखा

    यानी क़ुर्बानी-ए-पैहम को मुजस्सम देखा

    बारिश-ए-नूर तो गुलशन में रही शाम से क्या

    ज़िंदगी रक़्स तो करती रही अंजाम से क्या

    कितनी वुसअ'त तिरे जज़्बे में तिरे ख़ून में है

    बज़्म देहली में थी ख़ल्वत तिरी रंगून में है

    तेरे अंदाज़ चले हैं सहर-ओ-शाम के साथ

    तेरे अरमान रहे गर्दिश-ए-अय्याम के साथ

    तेरी बेताबी-ए-दिल पैकर-ए-गुल तक पहुँची

    तेरी आवाज़ थी जो बोस के दिल तक पहुँची

    तू ने दीवानों को इक जज़्बा-ए-वहदत बख़्शा

    तेरे मरक़द ने उन्हें शौक़-ए-शहादत बख़्शा

    ये हक़ीक़त भी खुली रह गई दुनिया तकती

    आदमी मरता है तहरीक नहीं मर सकती

    तेरे अंजाम का चर्चा तो नहीं कर सकता

    बद-नसीबी का मैं शिकवा तो नहीं कर सकता

    सल्तनत रह गई उस का भरोसा क्या था

    जो मिली औरों से उस चीज़ को समझा क्या था

    देन है तेरे लहू की तिरा फ़न क़ब्ज़े में

    आज भी सल्तनत-ए-शेर-ओ-सुख़न क़ब्ज़े में

    जंग में हार के भी फ़न में 'ज़फ़र' क्या कहिए

    शब के हाथों से ये तंज़ीम-ए-सहर क्या कहिए

    तुझ को अंधा तो किया मिट सका नूर-ए-कलाम

    अब भी चौंकाता है इंसाँ को तिरा सोज़-ए-कलाम

    रागनी ख़ून में अपने ही डुबो कर रख दी

    ज़िंदगी शेर-ओ-सुख़न में भी समो कर रख दी

    'ज़ौक़' से बढ़ के तिरे शेर में रानाई है

    'दर्द' से बढ़ के तिरे दर्द में गहराई है

    हश्र तक याद रहेगा ये है तक़दीर तिरी

    साहिब-ए-दिल की निगाहों में है तस्वीर तिरी

    तेरी सतवत पे शाही पे क़लम उट्ठा है

    एक इंसाँ की तबाही पे क़लम उट्ठा है

    स्रोत:

    Ruh-e-Sukhan (hisa dom) (Pg. 206 (e)208)

    • लेखक: स्वामी दयाल बिस्वानी
      • संस्करण: 1989
      • प्रकाशक: मतबा नामी प्रेस, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1971

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