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नज़्म
तुझ को मालूम नहीं तुझ को भला क्या मालूम
तेरे चेहरे के ये सादा से अछूते से नुक़ूश
हिमायत अली शाएर
नज़्म
'फ़िराक़' आज पिछली रात क्यूँ न मर रहूँ कि अब
हयात ऐसी शामें होगी फिर कहाँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
इसी के ख़र्रमी-ए-आग़ोश में उस का नशेमन था
इसी शादाब वादी में वो बे-बाकाना रहती थी