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नज़्म
ज़िया-ए-ख़ामोश के सुकूत-आश्ना तरन्नुम में घुल रहा है
कि उक़्दा-ए-गेसू-ए-शब-ए-तार खुल रहा है
कृष्ण मोहन
नज़्म
वाक़िफ़-ए-अटलांटिक थी बे-नियाज़-ए-ख़ुश्क-ओ-तर
मैं ने स्टेटस की ख़ातिर कर तो ली शादी मगर
खालिद इरफ़ान
नज़्म
ऐ उरूस-ए-इज़्ज़-ओ-जल फ़र्ख़न्दा रो ताबिंदा खो
तू इक ऐसे हुजरा-ए-शब से निकल कर आई है
नून मीम राशिद
नज़्म
तू खिलाता है नए गुल जो रवाँ होता है
रंग ये शाख़-ए-गुल-ए-तर में कहाँ होता है
मास्टर बासित बिस्वानी
नज़्म
क़स्र-ए-तौहीद का इक बुर्ज-ए-मुनव्वर तू है
गुलशन-ए-हक़ के लिए बू-ए-गुल-ए-तर तू है