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नज़्म
इख़तिलाफ़-ए-दीन-ओ-मिल्लत के ये झगड़े हों तमाम
जो मुसीबत बन गए हैं आज बहर-ए-ख़ास-ओ-आम
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
तेरा दिल है ज़ंग-आलूदा मगर चेहरा है साफ़
तेरे ज़ाहिर और बातिन में है कितना इख़्तिलाफ़
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
हम ने माना आप का आपस में है कुछ इख़्तिलाफ़
इक जगह हम बैठ कर कर लें न क्यूँ दिल अपने साफ़
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
अहमद हमेश
नज़्म
ज़मीं पे आसमाँ नहीं ये ज़ुल्म का ग़िलाफ़ है
हमें ये ज़ुल्म में अटी फ़ज़ा से इख़्तिलाफ़ है
अशरफ़ रफ़ी
नज़्म
जिन के लहू के तुफ़ैल आज भी हैं उंदुलुसी
ख़ुश-दिल ओ गर्म-इख़्तिलात सादा ओ रौशन-जबीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कहते हैं अहल-ए-क़िमार आप में गर्म इख़्तिलात
हम तो डब में सौ रुपे रखते हैं तुम रखते हो कै
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
फिर इत्तिसाल-ए-गर्दन-ओ-ख़ंजर है क्या कहूँ
फिर इख़्तिलात-ए-ज़ख़्म-ओ-नमक-दाँ है क्या करूँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अजब धीमा धीमा नशा इख़्तिलाफ़ात का
अपने निचले सुरों में कोई फ़िक्र मरबूत करता हुआ ज़ाविया