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नज़्म
चलो यूँ करो मिरे वास्ते कि बुलंद-ओ-बाला इमारतों का लो जाएज़ा
जो फ़लक को बोसा लगा रही हों इमारतें,
आरिफ़ इशतियाक़
नज़्म
ऊँची ऊँची इमारतों में मेरे हिस्से का आसमान लापता
मसरूफ़ से इस शहर में जिस्म तो हैं इंसान लापता
माधव अवाना
नज़्म
कहीं बहुत दूर छोड़ आए हैं आज बेहिस इमारतों को
जो अपने सीने में तीरगी का धुआँ दबाए सिसक रही थीं
ज़िया जालंधरी
नज़्म
ये इमारात ओ मक़ाबिर ये फ़सीलें ये हिसार
मुतलक़-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूँ