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नज़्म
आओ मिल कर इंक़लाब-ए-ताज़ा-तर पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब
जिन से कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
करोड़ों बच्चों का ये देस अब जनाज़ा है
हम इंक़लाब के ख़तरों से ख़ूब वाक़िफ़ हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब
आ रहे हैं जंग के बादल वो मंडलाते हुए
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सिर्फ़ इक काग़ज़ के पुर्ज़े से हुआ ये इंक़लाब
ख़ुद-ब-ख़ुद हर इक शरारत का हुआ है सद्द-ए-बाब