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नज़्म
लुत्फ़ की बात कहीं प्यार का इक़रार कहीं
दिल से फिर होगी मिरी बात कि ऐ दिल ऐ दिल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मुझे इक़रार है उस ने ज़मीं को ऐसे फैलाया
कि जैसे बिस्तर-ए-कम-ख़्वाब हो दीबा-ओ-मख़मल हो
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
गर ये सच है तो तिरे अद्ल से इंकार करूँ?
उन की मानूँ कि तिरी ज़ात का इक़रार करूँ?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
फ़ितरत में नज़र आते हैं हमें अपनी ही मोहब्बत के पहलू
इंकार था गर्मी का आलम इक़रार ये पहली बारिश है