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नज़्म
बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा है
बिसात ऐसा ख़ला है जो वुसअत-ए-तसव्वुर से मावरा है
ज़िया जालंधरी
नज़्म
कि उन में अहल-ए-हवस की सदा का सीसा है
वो झुकते रहते हैं लब-हा-ए-इक़तिदार की सम्त
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
न इल्म-ओ-आगही न मसनद न इक़्तिदार माँगूँगा
फ़रावानी ग़म से नजात न फ़ारिग़-उल-बाली
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
कर रहे हैं लक्ष्मी-पूजन भी घरों में साहूकार
देव दौलत को समझ बैठे हैं रब्ब-ए-इक़्तिदार
शातिर हकीमी
नज़्म
उन की अज़्मत से सबक़ लें आज अहल-ए-इक़्तिदार
कुर्सियों पर बैठ जाने से नहीं मिलता वक़ार