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नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
लेकिन ऐ इल्म-ओ-जसारत के दरख़्शाँ आफ़्ताब
कुछ ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर भी तुझ से करना है ख़िताब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जसारत ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा की पैदा कर निगाहों में
नुमूद-ए-हुस्न के अनवार पैमानों में रहते हैं
तकमील रिज़वी लखनवी
नज़्म
कि अपनी अज़्मत-ए-ख़ुफ़्ता को नेज़ों से जगा दूँगा
मज़ा बे-जा जसारत का हरीफ़ों को चखा दूँगा
वफ़ा बराही
नज़्म
तुम्हारी ये करम-फ़रमाइयाँ मा'मूल थीं जिन को
मोहब्बत के उफ़ुक़ पर जावेदाँ करने की ख़्वाहिश इक जसारत थी
क़मर जहाँ नसीर
नज़्म
सनानें खींच ली हैं सर-फिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामान-ए-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तोड़ देते हैं जहालत के अँधेरों का तिलिस्म
इल्म की शम्अ' जलाते हैं हमारे उस्ताद