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नज़्म
अपनी प्यास इक दूसरे के ख़ूँ से बुझा रही है
ये संग-दिल जश्न-ए-मर्ग-ए-अम्बोह-ए-बे-गुनाहाँ मना रहे हैं
ज़िया जालंधरी
नज़्म
रबाब छेड़ ग़ज़ल-ख़्वाँ हो रक़्स-फ़रमा हो
कि जश्न-ए-नुसरत-ए-मेहनत है जश्न-ए-नुसरत-ए-फ़न
साहिर लुधियानवी
नज़्म
उस के रौशन चराग़ों में जश्न-ए-जमाल-ए-तुलू’-ए-सहर तक
शफ़क़-ता-शफ़क़ मौज-दर-मौज शोर-ए-तलातुम में
बलराज कोमल
नज़्म
रोज़ हो जश्न-ए-शहीदान-ए-वफ़ा चुप न रहो
बार बार आती है मक़्तल से सदा चुप न रहो