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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मिलने से घबराता हूँ मैं झूट नहीं कह पाता हूँ
उस के शिकवे उस की शिकायत झगड़े से डर जाता हूँ
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
याँ हर-दम झगड़े उठते हैं हर-आन अदालत बस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इख़तिलाफ़-ए-दीन-ओ-मिल्लत के ये झगड़े हों तमाम
जो मुसीबत बन गए हैं आज बहर-ए-ख़ास-ओ-आम
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
धर्म-ओ-जाती-वाद के झगड़े मिटा कर एक बार
आओ हम मिल कर मोहब्बत से गले सब से मिलें