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नज़्म
जो तुझ से हो सके ऐ माँ तू वो तरीक़ा बता
तू जिस को पा ले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
सिर्फ़ इक काग़ज़ के पुर्ज़े से हुआ ये इंक़लाब
ख़ुद-ब-ख़ुद हर इक शरारत का हुआ है सद्द-ए-बाब
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
रहगुज़ारों पे सोते हुए आदमी
टाट पर, और काग़ज़ के टुकड़ों पे फैले हुए जिस्म, सूखे हुए हाथ