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नज़्म
ढूँडी है यूँही शौक़ ने आसाइश-ए-मंज़िल
रुख़्सार के ख़म में कभी काकुल की शिकन में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
न ताबनाकी-ए-रुख़ है न काकुलों का हुजूम
है ज़र्रा ज़र्रा परेशाँ कली कली मग़्मूम
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
मेरे आलम में नहीं इस बद-मज़ाक़ी का शिआर
काकुल-ए-अफ़्साना हो दोश-ए-हक़ीक़त से दो-चार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
काकुल में दरख़्शाँ है ये पेशानी-ए-रक़्साँ
या साया-ए-ज़ुल्मात में है चश्मा-ए-हैवाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
धूप में लहरा रही है काकुल-ए-अम्बर-सरिश्त
हो रहा है कम-सिनी का लोच जुज़्व-ए-संग-ओ-ख़िश्त
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सच बता तू भी है क्या ऐ कुश्ता-ए-सद-हिर्स-ओ-आज़
राज़-दान-ए-काकुल-ए-शब-रंग ओ चश्म-ए-नीम-बाज़