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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की