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नज़्म
क्यूँ तिरी मौजों से छन्ते नहीं अनवार-ए-सहर?
रौशनी क्यूँ हुई जाती है गुरेज़ाँ तुझ से
परवेज़ शाहिदी
नज़्म
सोए हुए ज़र्रे जाग उठे अनवार-ए-सहर बेदार हुए
एहसास-ए-ज़मीं बेदार हुआ अफ़्क़ार-ए-बशर बेदार हुए
साग़र निज़ामी
नज़्म
ज़र्द पत्ता हो गया था रो-ए-पुर-अनवार-ए-गुल
शर्म रख ली तू ने बन कर ग़ाज़ा-ए-रुख़्सार-ए-गुल
हामिद हसन क़ादरी
नज़्म
ख़ुदी में डूब जा ग़ाफ़िल ये सिर्र-ए-ज़िंदगानी है
निकल कर हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जावेदाँ हो जा