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नज़्म
ख़्वाब ज़ख़्मी हैं उमंगों के कलेजे छलनी
मेरे दामन में हैं ज़ख़्मों के दहकते हुए फूल
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
तीर-ए-इफ़्लास से कितनों के कलेजे हैं फ़िगार
कितने सीनों में है घुटती हुई आहों का ग़ुबार
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
अदा से हाथ उठते हैं गुल-ए-राखी जो हिलते हैं
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इफ़रीत-ए-सीम-ओ-ज़र के कलेजे में क्यूँ है फाँस
क्यूँ रुक रही है सीने में तहज़ीब-ए-नौ की साँस
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
राम के हिज्र में इक रोज़ भरत ने ये कहा
क़ल्ब-ए-मुज़्तर को शब-ओ-रोज़ नहीं चैन ज़रा
आफ़ताब रईस पानीपती
नज़्म
सहर तक वो मुझे चिमटाए रखती है कलेजे से
दबे पाँव किरन ख़ुर्शीद की आ कर जगाती है
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
'ज़ौक़'-ओ-'मोमिन' ने मिरा साज़ बजाया बरसों
'दाग़' ने अपने कलेजे से लगाया बरसों