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नज़्म
''हर एक करवट मैं याद करता हूँ तुम को लेकिन
ये करवटें लेते रात दिन यूँ मसल रहे हैं मिरे बदन को
गुलज़ार
नज़्म
सर-निगूँ रहती हैं जिस से क़ुव्वतें तख़रीब की
जिस के बूते पर लचकती है कमर तहज़ीब की
जोश मलीहाबादी
नज़्म
शे'रों में करवटें ये नहीं सोज़-ओ-साज़ की
लहरें हैं ये हुज़ूर की ज़ुल्फ़-ए-दराज़ की
जोश मलीहाबादी
नज़्म
आ चुकी थी नींद सी ग़म को कि मौसम ना-गहाँ
बहर-ओ-बर में करवटें लेने लगा अब क्या करूँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ख़ुदाई हुस्न उर्यां है जहाँ की नौजवानी में!
सदाक़त करवटें लेती है साज़-ए-दिल के तारों में
अख़्तर शीरानी
नज़्म
बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्रीं सफ़ीने में
तमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में