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नज़्म
क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें
जोश मलीहाबादी
नज़्म
दिलों पे ख़ौफ़ के पहरे लबों पे क़ुफ़्ल सुकूत
सुरों पे गर्म सलाख़ों के शामियाने हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
क़ुफ़्ल-ए-बाब-ए-शौक़ थीं माहौल की ख़ामोशियाँ
दफ़अतन काफ़िर पपीहा बोल उठा अब क्या करूँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मिरे दादा जो ब्रिटिश फ़ौज के नामी भगोड़े थे
न जाने कितनी जेलों के उन्हों ने क़ुफ़्ल तोड़े थे
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
कुछ और नहीं तो आज शहादत का कलमा सुनने को मिलेगा
कानों के इक सदी पुराने क़ुफ़्ल खुलेंगे
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
जिसे पढ़ने से उस की सर्द-मेहरी सर्द पड़ जाए
जो उस के दिल का ज़ंगी क़ुफ़्ल खोले और वो मुझ को
शहनाज़ परवीन शाज़ी
नज़्म
ज़िंदगी अपने दरीचों में है मुश्ताक़ अभी
क्या ख़बर तोड़ ही दे बढ़ के कोई क़ुफ़्ल-ए-जुमूद
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
तिरी यादें तिरी परछाइयाँ आवाज़ देती हैं
ये क़ुफ़्ल-ए-ज़ंग-आलूदा ये घर के बंद दरवाज़े
क़ैसर-उल जाफ़री
नज़्म
यार परिंदे! गाँव वही है वैसा नीम का पेड़
दीवारों पर काँच जड़े हैं दरवाज़ों पर क़ुफ़्ल