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नज़्म
ख़्वाब-ए-गिराँ से ग़ुंचों की आँखें न खुल सकीं
गो शाख़-ए-गुल से नग़्मा बराबर उठा किया
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
तुम यूँही ज़िद में हुए ख़ाक-ए-दर-ए-मय-ख़ाना
मुझ को ये ज़ोम कि मैं ने तुम्हें टोका कब था
शाज़ तमकनत
नज़्म
तेरी ख़िदमत पर जो बाँधेंगे कमर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
होंगे वो तेरे लिए सिल्क-ए-गुहर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
ख़ाक-ए-पाक-ए-हिंद का गंज-ए-गिराँ-माया था तू
अह्ल-ए-दुनिया के लिए पैग़ाम-ए-हक़ लाया था तू