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नज़्म
कारवाँ बढ़ने लगा तेज़ी से मंज़िल की तरफ़
काएनात-ए-दर्द ख़ुद खींचने लगी दिल की तरफ़
मयकश अकबराबादी
नज़्म
कभी अब्बू से पिटता हूँ कभी ऐसा भी होता है
गधे की दुम पकड़ कर खींचने पर लात खाता हूँ
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
कभी अब्बू से पिटता हूँ कभी ऐसा भी होता है
गधे की दुम पकड़ कर खींचने पर लात खाता हूँ
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
और ज़िंदगी की ख़ाली हथेली पे आड़ी तिरछी बे-ढंगी लेकिन बा-मा'नी और पक्की लकीरें खींचने की ठान ली
क़मर जहाँ नसीर
नज़्म
सनानें खींच ली हैं सर-फिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामान-ए-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हदें वो खींच रक्खी हैं हरम के पासबानों ने
कि बिन मुजरिम बने पैग़ाम भी पहुँचा नहीं सकता