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नज़्म
फ़ुग़ाँ कि ''जुम्बिश-ए-आज़ा'' वहाँ असास-ए-नमाज़
ख़ोशा कि लर्ज़िश-ए-दिल है यहाँ क़याम ओ क़ूऊद
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मिला न हैफ़! ग़ुल-आराई का मिज़ाज कभी
मिरे ख़ुलूस के ''ख़िर्मन के ख़ोशा-चीनों को''
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
मुंतज़िर बारिश के हैं मक्की के और शाली के खेत
तिश्नगी से ख़ोशा की सूरत है मुरझाई हुई
शाह दीन हुमायूँ
नज़्म
हुई जाती है रज़्म-ए-जिंदगानी मुज़्महिल घायल
निशात-ओ-दर्द की वो ख़ोशा-चीनी छोड़ दी हम ने
साजिदा ज़ैदी
नज़्म
ख़ोशा-ए-पर्वीं कि है शादाब-ए-ख़ून-ए-आफ़्ताब
पानियों में लहलहाता है अजब अंदाज़ से
तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद
नज़्म
न अब गुलचीं है ख़ोशा-चीं न वो सय्याद जाबिर है
जो था ना-मेहरबाँ अब हो रहा है मेहरबाँ अपना