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नज़्म
हर तरह होती है ख़ुश-वक़्ती-ओ-ख़ूबी बहबूद
ख़ुश-दिली ताज़गी और ख़ुर्मी करती है दुरूद
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कहाँ अब जादा-ए-ख़ुर्रम में सर-सब्ज़ाना जाना है
कहूँ तो क्या कहूँ मेरा ये ज़ख़्म-ए-जावेदाना है
जौन एलिया
नज़्म
मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं