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नज़्म
कहाँ अब जादा-ए-ख़ुर्रम में सर-सब्ज़ाना जाना है
कहूँ तो क्या कहूँ मेरा ये ज़ख़्म-ए-जावेदाना है
जौन एलिया
नज़्म
पीते हैं मय के प्याले और देखते हैं जंगले
कितने फिरे हैं बाहर ख़ूबाँ को अपने संग ले