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नज़्म
कभी सूखे गुलाबों से
कभी कुछ ऐसे ख़्वाबों से कि जिन की किर्चियाँ चुन कर मिरी पोरें हुईं छलनी
सफ़ीया चौधरी
नज़्म
तलब मिरी आँख में मचल के ही इतनी अर्ज़ां हुई है वर्ना
मैं अपने दामन में ज़ात की किर्चियाँ समेटे
सलमान हैदर
नज़्म
किर्चियाँ ख़्वाब की रक्खी हैं हिफ़ाज़त से कहीं
और कुछ फूल छुपा रक्खे हैं अनजाने में
शाइस्ता मुफ़्ती
नज़्म
किर्चियाँ चुभने लगी हैं जो मिरी आँखों में
आज लाज़िम है कि चुप-चाप गुज़र जाए शाम