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नज़्म
अर्श मलसियानी
नज़्म
ख़याल ओ शेर की दुनिया में जान थी जिन से
फ़ज़ा-ए-फ़िक्र-ओ-अमल अर्ग़वान थी जिन से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दौर-ए-मुस्तक़बिल पे दुनिया के निगाहें थीं तिरी
रहबर-ए-राह-ए-अमल दिल-दोज़ आहें थीं तिरी
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
नज़्म
वहम को दुर्र-ए-हक़ीक़त से सजाया मैं ने
मशअ'ल-ए-राह-ए-अमल कुन को बनाया मैं ने
ख्वाजा मंज़र हसन मंज़र
नज़्म
रूह में जिस ने भरी उर्दू के बे-जाँ जाम में
कैफ़-ए-एहसास-ए-अमल है जिस के हर पैग़ाम में
मयकश अकबराबादी
नज़्म
हम मु’अर्रा हो के इन औसाफ़ से पस्ती में हैं
दौलत-ए-‘इल्म-ओ-‘अमल खो कर तही-दस्ती में हैं
बर्क़ देहलवी
नज़्म
और फिर उस तिफ़्ल की सूरत पे गहरी सोच थी
जो मुझे इक दा’वत-ए-फ़िक्र-ओ-अमल सी दे गई