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नज़्म
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उस को जा के ये बताना हो
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
तो इस चारों जानिब फैली हथियारों की दुनिया
सीना दहला देने वाले तय्यारों की इंसाँ-कुश आवाज़ें
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ख़ुदा का अर्श काँप उठता था इस फ़रियाद को सन कर
बरादर-कुश सज़ा पाते थे पत्थर बन के जीते थे
सहर अंसारी
नज़्म
शहला कलीम
नज़्म
अपने मुँह से क्या बताएँ हम कि क्या वो लोग थे
नफ़्स-कुश नेकी के पुतले थे मुजस्सम योग थे
बर्क़ देहलवी
नज़्म
मुझ से पहले कितने शा'इर आए और आ कर चले गए
कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़्मे गा कर चले गए