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नज़्म
होते हैं अहल-ए-क़लम ही मुल्क-ओ-मिल्लत का निशाँ
दौर-ए-माज़ी के तमद्दुन की यही हैं दास्ताँ
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
यहाँ परहेज़ कैसा आओ रिंदान-ए-वतन आओ
कि जाम अपना है अपना मै-कदा पीर-ए-मुग़ाँ अपना
राम लाल वर्मा हिंदी
नज़्म
जिन की चोटी पर न पहुँचे कोई मुर्ग़-ए-तेज़-पर
सौदा-ए-लाल-ओ-जमुर्रद थी वहाँ की ख़ाक भी