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नज़्म
मिरी तख़्लीक़ की मुझ को जहाँ की पासबानी दी
समुंदर मोतियों मूँगों से कानें लाल-ओ-गौहर से
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह
माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
इक दिया जो बेचता है माँगता है शम-ए-तूर
इक ज़रा से संग-रेज़े की है क़ीमत कोह-ए-नूर
जोश मलीहाबादी
नज़्म
है दुनिया जिस का नाँव मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो मंहगों को ये महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है