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नज़्म
कितने माथों के अभी सर्द हैं रंगीन गुलाब
गर्द अफ़्शाँ हैं अभी गेसू-ए-पुर-ख़म कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
सारी क़ुव्वत चूस चुकी दिन भर की शहर-नवर्दी
माथों में से झाँक रही है मरती धूप की ज़र्दी
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
कि मेहराब मस्जिद के हों या माथों के
नेकियों और बदियों का हिसाब सिर्फ़ ख़ुदा के पास है
मक़सूद वफ़ा
नज़्म
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
साहिर लुधियानवी
नज़्म
यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम
जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें