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नज़्म
गुलू में तेरी उल्फ़त के तराने सूख जाएँगे
मबादा याद-हा-ए-अहद-ए-माज़ी महव हो जाएँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूँ हैं आप अलम का है क्यूँ वफ़ूर
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
अपना कुछ ग़म नहीं है पर ये ख़याल आता है
मादर-ए-हिन्द पे कब से ये ज़वाल आता है