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नज़्म
गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम
क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मध-भरे नैन से आँखें न मिलाओ 'कैफ़ी'
लोग मशहूर न कर दें तुम्हें मय-नोश कहीं
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
फिर कफ़-आलूदा ज़बानें मदह ओ ज़म की कुमचियाँ
मेरे ज़ेहन ओ गोश के ज़ख़्मों पे बरसाने लगीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
निकल कर जू-ए-नग़्मा ख़ुल्द-ज़ार-ए-माह-ओ-अंजुम से
फ़ज़ा की वुसअतों में है रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
नून मीम राशिद
नज़्म
मद्ह-ख़्वाँ उस का तू हो 'बर्क़' ब-सद इज्ज़-ओ-नियाज़
ख़ाकसारों के मदद-गार गुरु-नानक थे