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नज़्म
इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़्लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दफ़्न कर देगा जो ख़ालिक़ को भी मख़्लूक़ समेत
और ये आबादियाँ बन जाएँगी फिर रेत ही रेत
अहमद फ़राज़
नज़्म
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
मेरे ख़्वाबों में उतर कर मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की आरज़ूओं का अंदाज़ा कर
मेरे दिल में पड़ाव कर
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
लगा मंडी पहुँच कर अशरफ़-उल-मख़्लूक़ हैं बकरे
हुआ इंसान को महसूस ख़ुद इंसान है बकरा