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नज़्म
दरिंदे सर झुका देते हैं लोहा मान कर इस का
नज़र सफ़्फ़ाक-तर इस की नफ़स मकरुह-तर इस का
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कि मैं अपने अंदर की शफ़्फ़ाफ़ मकरूह सूरत दिखा कर
ज़माने की आँखों में ख़ुद को बड़ा देखना चाहता हूँ
ग़ज़नफ़र
नज़्म
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कल कोई मुझ को याद करे क्यूँ कोई मुझ को याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यूँ वक़्त अपना बर्बाद करे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
यही मक़्सूद-ए-फ़ितरत है यही रम्ज़-ए-मुसलमानी
उख़ुव्वत की जहाँगीरी मोहब्बत की फ़रावानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हर मसर्रत में है राज़-ए-ग़म-ओ-हसरत पिन्हाँ
क्या सुनोगी मिरी मजरूह जवानी की पुकार
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सोचता हूँ कि तुझे मिल के मैं जिस सोच में हूँ
पहले उस सोच का मक़्सूम समझ लूँ तो कहूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था