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नज़्म
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अगर ख़ल्वत में तू ने सर उठाया भी तो क्या हासिल
भरी महफ़िल में आ कर सर झुका लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अक़्ल की मंज़िल है वो इश्क़ का हासिल है वो
हल्क़ा-ए-आफ़ाक़ में गर्मी-ए-महफ़िल है वो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी है कैसा तेरी महफ़िल में
यहाँ तो बात करने को तरसती है ज़बाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तेरी महफ़िल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ाएम
हम तो मेहमाँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है