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नज़्म
अपनी ग़ैरत बेच डालीं अपना मस्लक छोड़ दें
रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अपने आक़ाओं की मंशा थी मशिय्यत उन की
गर वो ज़िंदा थे तो ज़िंदों में वो शामिल कब थे
अली अकबर नातिक़
नज़्म
मेरा मंशा नहीं अक़्वाम-ए-ज़ुबूँ की तस्ख़ीर
मेरा मक़्सद नहीं पहनाऊँ ख़िरद को ज़ंजीर
इज़हार मलीहाबादी
नज़्म
मिला है हज़रत-ए-इक़बाल से उसे आहंग
हुआ है 'मंशा' तभी ऐसा नग़्मा-ख़्वान-ए-हयात
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
नज़्म
राज़-ए-हस्ती एक दिन होगा ऐ 'मंशा' बे-नक़ाब
शर्त ये है हम निगाह-ए-बा-सफ़ा पैदा करें
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
नज़्म
चश्म-ए-दिल वा हो तो है तक़्दीर-ए-आलम बे-हिजाब
दिल में ये सुन कर बपा हंगामा-ए-मशहर हुआ