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नज़्म
और 'कृष्ण-चंद्र' 'मंटो' ज़िंदा कहानियाँ हैं
लफ़्ज़ों के आइने में हुस्न-ए-बयाँ का जादू
फ़रहत एहसास
नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
पढ़ा है 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' 'इस्मत'-ओ-'मंटो' को भी मैं ने
ये रंगों में बसी हर दास्ताँ गोया लिखी मैं ने
ज़ेबुन्निसा ज़ेबी
नज़्म
सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं
तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की
जौन एलिया
नज़्म
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं